Tuberculosis
साधारण विचार-रोग-बीजाणु यक्ष्मा के कारण बाजरे के दाने की तरह फुंसियाँ टायफायड फेफड़े- यक्ष्मा से ग्रंथि-प्रदाह-आन्त्र क्षय-आँतों में क्षयरोग फेफड़ों में क्षयरोग फेफड़े का पुराना क्षयरोग ।
साधारण विचार – बचपन में साधारण क्षयरोग उसके फेफड़ों में क्षयरोग के बीजाणुओं के जमा होने से नहीं होता। बच्चे के शरीर के हर अंग और तंतु में यक्ष्मारोग की प्रवणता रहती है, ऊपरी तौर पर इसका निदान निकालना बहुत ही कठिन है। जब क्षयरोग बच्चे के शरीर में प्रविष्ट हो जाता है तो उसके फेफड़े, मस्तिष्क, स्थानीय ग्रंथियों, चमड़ा तथा हृदय आक्रान्त हो जाते हैं। ऐसे स्थलों में निदान जानना सहज है, किन्तु मध्यान्त्र ग्रन्थियों, फेफड़ों के भीतरी झिल्लियों, अन्त्रावरक झिल्लियों, आँतों, यकृत, प्लीहा और गुद्दों में क्षयरोग हो जाने पर निदान निकालना बहुत ही कठिन हो जाता है।
शिशु के बचपन में साधारण क्षयरोग प्रायः नहीं होता अर्थात् बच्चे के जीवन के प्रथम कुछ महीनों में; किन्तु दूसरी ओर दूसरे या तीसरे साल ऐसे क्षयरोग का आक्रमण हो सकता है। पेरिस के अस्पतालों के बच्चों के विभाग में २१ प्रतिशत बच्चे इसी क्षयरोग से मर जाते हैं और अन्य बड़े-बड़े नगरों में बच्चे के प्रथम पाँच वर्षों के भीतर मृत्यु-संख्या काफी होती है।
इस विषय में माता-पिता से क्षयरोग का संक्रमण नहीं माना जाता। प्राचीन समय में जैसा समझा जाता था, वैसा आजकल माता-पिता से बच्चों में संक्रमण स्वीकृत नहीं है। बच्चे के शरीर की प्रकृति ही वैसे रोगाक्रमण का कारण माना जाता है। किसी भी कारण से उसके शरीर में वैसे कठिन रोग का संक्रमण हो सकता है। इसका भेद जानना बहुत ही आवश्यक कार्य है। जहाँ पेट में बच्चा रहते समय माता का यक्ष्मा- रोग अत्यन्त बढ़ गया हो, वहाँ वह पैतृक समझा जा सकता है। यह एक देखने की बात है कि कितनी स्त्रियाँ स्वस्थ बच्चों को जानती हैं? जो जीवन भर स्वस्थ रहते हैं।
कुछ ग्रन्थकार विरोध प्रकट करते हैं और कहते हैं कि वैसा विष बच्चों के शरीर में माता के द्वारा प्रविष्ट हो जाता है। किन्तु वह जीवन के सन्धि- स्थल में आने तक निष्क्रिय रहता है, जैसे कि यौवन काल या स्त्रियों के लिए बच्चा जनने का समय, जब कि वह रोग बढ़ जाता है। किन्तु सौभाग्य से मनुष्य के परिवार में यक्ष्मा रोगाक्रान्त, माता-पिता से उत्पन्न होकर भी बच्चे अच्छा स्वास्थ्य और दीर्घजीवन प्राप्त करते हैं, यदि वे स्वास्थ्यकर वातावरण में पालित होते हैं। अन्तिम जीवन में भी वे वैसे रोगः की वृद्धि की प्रवणता से मुक्त रहते हैं।
रोग का संक्रमण, टीका, चोट, रगड़ अथवा घाव के जरिये यक्ष्मा- रोग के बीजाणु दूसरे के शरीर में प्रविष्ट हो जाते हैं, टीका के द्वारा तो सीधे रोग पहुँच जाता है। यक्ष्मा-रोगी जहाँ थूकते हैं, वह थूक सूख जाने पर वहाँ के रोग-बीजाणु हवा में फैल जाते हैं। इस विचार को अधिक बढ़ाने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि प्रायः सर्वत्र छोटे बच्चों से लेकर बूढ़ों तक में साँस के द्वारा रोग-संक्रमण के अनेक प्रमाण मिले हैं। खास- कर जिन बच्चों या उमरदार आदमियों में यक्ष्मा-रोग बढ़ चुका है, उनके सामने रहने से छोटे-छोटे बच्चों में यह रोग संक्रमित हो जाता है।
ऐसा रोग-संक्रमण खाद्य के द्वारा भी होता है और आजकल यह सिद्धांत स्वीकृत हो चुका है कि दूध के द्वारा छोटे बच्चों में यक्ष्मा-रोग के बीजाणु पहुँच जाते हैं। परीक्षा से जाना गया है कि दूध देने वाले पशुओं *में यक्ष्मा के बीजाणु व्यापक रूप से रहते हैं। यहाँ तक कि मनुष्य या पशु किसी के भी फेफड़ों में जब यह रोग स्थायी हो जाता है तो उनके दूध से वे बीजाणु बच्चों के शरीर में प्रविष्ट हो जाते हैं। अणुवीक्षण यन्त्र या जाँच की नली से निश्चित रूप से जाना गया है कि दूध के द्वारा रोग- संक्रमण एक साधारण बात है। ‘पूर्वी प्रदेशों के दुग्धशालाओं के पशुओं में १० या १५ प्रतिशत पशु इस रोग से ग्रसित रहते हैं, यह बात डा० ओस्लर ने प्रमाणित की है। इस कारण बहुत ही सावधानी से दूध देने वाली गायों की परीक्षा पहले से ही कर लेनी चाहिए। बहुत-सी गायों से दूध लेना उचित नहीं है, क्योंकि उनमें २-१ रोगाक्रान्त भी हो सकती हैं। यदि दुग्धशाला की एक भी गाय यक्ष्मा-रोग से ग्रसित हो तो वहाँ का सारा दूध दूषित हो जाता है। बहुत-सी दुग्धशालाओं में सुखण्डी रोगाक्रान्त ज्वर से ग्रसित या यक्ष्मा रोग बीजाणु से भरी हुई १-२ गाय अवश्य रहती हैं।